गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

दबंग के आगे दबंगई दबी


छत्तीसगढ़ आते ही अपने दबंगई के लिए विख्यात पत्रिका ने भी क्या वही ढर्रा अपना लिया है । क्या दबाव के आगे वह भी झुकने लगा है या फिर मामला कुछ और ही है । राÓयोत्सव के इन्वेस्टर मीट को लेकर यह सवाल पहली बार उठा था तब इन्वेस्टर मीट तक ही मामला सुलझने की चर्चा हुई थी ।
लेकिन आतीफ असलम के कार्यक्रम  को लेकर पत्रिका के रवैये से एक बार फिर लोग हैरान है दमदार मंत्री के इस कार्यक्रम को लेकर कम प्रसार वाले अखबारों ने तो जमकर बखिया उधेड़ी । और इसे 26/11 के शहीदों का अपमान करार दिया । कई संगठन विरोध में खड़े रहे । प्रदर्शन हुआ लेकिन बड़े प्रसार वाले अखबारों में यह सब नहीं दिखा । लोगों को पत्रिका से उम्मीद थी कि कम से कम वह तो दबंग के खिलाफ दबंगई दिखायेगा लेकिन न मालूम कारणों से ऐसा कुछ नहीं हुआ । अब प्रदर्शन करने वालों के अलावा पत्रिका से उम्मीद रखने वाले भी हैरान हैं कि आखिर हर जगह दबंग की सेटिंग कैसे हो जाती है ।
नवभारत के काईम रिपोर्टरों का दुख
जिले के एक बड़े ओहदे में बैठे अफसर से नवभारत के मालिक की रिश्तेदारी से यहां के रिपोर्टर दुखी है । थोड़ी भी पुलिस की कमियां गिनाने का मतलब नौकरी से हाथ धोना है ऐसे में घटना तो छापी जायेगी लेकिन स्वयं को बचाने की चिंता भी कम नहीं है । आखिर बड़े ओहदे में बैठे यह अफसर अपनी रिश्तेदारी की याद दिलाने से पीछे जो नहीं रहता है ।
मीडिया की आंख
कहते हैं जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि । कमोबेश यही बात मीडिया के लिए भी कहा जाता है । ऐसे में भास्कर ने 26/11 की श्रद्धांजलि को लेकर जिस तरह से शिदें पवार के जूते को लेकर आपति की वह तारीफ ए काबिल है लेकिन दिल्ली तक निगाह रखने के बाद उसे रायपुर में आतीफ असलम का कार्यक्रम क्यों नहीं दिखा । यह आम लोगों में चर्चा है ? क्या यहां दबंग मंत्री की दबंगई काम कर रहा है । या मामला सेटिंग का है ।
। हिंदी अखबार- अंग्रेजी शब्द ।
देश में सबसे Óयादा पढे जाने वाले प्रमुख हिंदी अखबारों के पाठकों को धडल्ले से इस्तेमाल हो रहे अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल पसंद नहीं आ रहा है। जन मीडिया.पत्रिका की ओर से करवाए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई
है। इंडियन रीडर सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर चार सबसे अधिक प्रसार वाले हिंदी समाचार पत्रों के पाठकों का मानना है कि अंग्रेजी के शब्द समाचार को बोझिल बनाते हैं और पढऩे में रूकावट पैदा करते हैं।
दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान के 70 -70 प्रतिशत, अमर उजाला के 69 प्रतिशत और दैनिक जागरण के 65 प्रतिशत पाठकों का मानना है कि अंग्रेजी के शब्द समाचारों को बोझिल बनाते हैं। इन अखबारों के गांव में पढ़े जाने वाले जिला स्तर के विशेष स्थानीय खबरों में इस्तेमाल कुछ अंग्रेजी शब्दों की बानगी इस प्रकार है -फंड सेफ्टी ऑफिसर, मीडिया, रेसिंग सीन, इनोवटर्स इन हेल्थ, डल्फिन टेल, रेड जोन, नार्थ जोन कोआर्डिनेटर, कांप्रिहेंसिव ड्रेस, अर्ली मॉर्निंग, अनप्लग, एडआन, कंटेंप्ट टू कोर्ट, बियोंड टाइम और आइडेंटिफिकेशन डाक्यूमेंट।

न सूत न कपास, जुलाहों में...


यह तो न सूत न कपास जुलाहां में लठ्ठम लठ्ठा की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना छत्तीसगढ़ में मीडिया ने कभी भी अपनी मर्यादाएं लांघने की जहमत नहीं की । इन दिनों जहां एक तरफ आपसी प्रतिस्पर्धा चरम पर हे वहीं खबरों में सनसनी पैदा करने की होड़ भी मची हुई है । खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह Óयादा देखने को मिल रहा हैं ।
छत्तीसगढ़ में इलेक्ट्रानिक मीडिया की पूछ परख प्रिंट के मुकाबले कमजोर है । ई टी वी, सहारा, जी 24, साधना के अलावा भी यहां इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनल काम कर रहे हैं लेकिन Óयादातर चैनल प्रेस कांफ्रेस और रूटीन की खबरों तक ही सिमट कर रह गये हैं Óयादातर खबरे प्रिंट मीडिया में छप चुकी होती है और नया करने के चक्कर में अपनी प्रतिष्ठा को ही धब्बा लगा बैठते हैं ।
कई चैनल तो सत्ता के गलियारे तक ही अपने को समेट कर रख छोड़ा है । ऐसे में खबरों की होड़ पीछे छूट गया है ।
इसके उलट प्रिंट मीडिया में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है । लेकिन चुनावी साल होने की वजह से सरकार का दबाव भी कम नहीं है । सरकार के खिलाफ जाती खबर छपी नहीं कि जनसंपर्क से लेकर भाजपा के मीडिया मैनेजमेंट करने वाले ट्रट पड़ते हैं । हालांकि यह स्थिति बड़े बैनर वाले अखबारों के साथ Óयादा है लेकिन छोटे बैनर वाले अखबारों पर भी दबाव कम नहीं है ।
अब तो कई अखबार वाले जमीन और विज्ञापन के लिए दबाव भी बनाने लगे है ।
प्रेस क्लब का काम
सी एम का झुनझूना...
रायपुर प्रेस क्लब के वर्तमान पदाधिकारियों की नींद खुलने लगी है । कार्यकाल समाप्ति के दौर में जब जागी तब सवेरा की तर्ज पर डायरेक्टरी का विमोचन और वरिष्ठ पदाधिकारियों का सम्मान किया गया ।
दोनों ही कार्य सराहनीय है क्योंकि वरिष्ठों के सम्मान में ही सबका सम्मान निहित है एक अ'छे कार्यक्रम में एक बार फिर पत्रकारों की पेशंन जैसी मांग पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का जवाब निराश करने वाला रहा । अपने ही कामों के बखान के बीच मुख्यमंत्री का पत्रकार पेंशन योजना के प्रति रवैया जोर निराशावादी है । जबकि नई राजधानी में अवासीय योजना पर उनकी चुप्पी भी ठीक नहीं रही ।
कहीं होड़ तो कहीं बेरूखी .....
वरिष्ठ पदाधिकारियों के सम्मान में प्रेस क्लब द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अपने नाम देखकर कई उत्साहित थे । और कुछ एक लोग तो लालायित भी दिख रहे थे । जबकि कुछ लोग पहले की तरह अपने को इससे दूर ही रखा । इनमें से कुछ पूर्वाग्रह के शिकार है तों कुछ की वर्तमान पदाधिकारियों से नाराजगी है ।
और अंत में ...
सहारा न्यूज चैनल को रूचिर गर्ग के जाने के बाद से ब्यूरों की तलाश है । शर्ते और नियम लागू है । शिव पर डोरे डाले गये थे लेकिन वह भी छिटक गये ।

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

नियंत्रण नहीं पर लाभ चाहिए...
कोलगेट कांड को दबाने के लिए जी न्यूज और जिंदल समुह में सौदे की खबर से मीडिया शर्मसार हुआ है। और यह सवाल जोर पकडऩे लगा है कि यह मीडिया पर सरकार का नियंत्रण जरूरी हो गया है! इस घटना में न तो जिंदल समूह के भ्रष्टाचार कम आंके जा सकते है और न ही जी न्यूज की इस खेल को ही नजर अंदाज किया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ राÓय बनने से पहले यहां की पत्रकारिता को जो सम्मान मिलता रहा है ह उसमें कमी आई है। राÓय बनने के बाद मीडिया मैनेजमेंट का नया खेल शुरू हुआ है जिसमें बड़े-बड़े मीडिया समूह भी शामिल हो गये है। वे या तो खबरों के एवज में सीधे रकम ले रहे हैं या फिर विज्ञापन को माध्यम बता रहे है। पेड-चूज का यह आलम है कि सभी नेता व कार्पोरेट घराने इस खेल में शामिल हैं।
छत्तीसगढ़ में बड़े अखबार समूहो ने सरकार से फायदे के सीधे रास्ते के अलावा अप्रत्यक्ष फायदे का खेल शुरू कर दिया अखबार के अलावा दूसरे धंधो में सरकार से फायदा लेने का तिकइम जनता के सामने है। अखबार चलाने के नाम पर कौडिय़ों के मोल सरकारी जमीने ली गई और उस पर कामर्शियल काम्प्लेक्स तक ताने गये। सरकारी जमीनों के इस बेचा इस्तेमाल पर कार्रवाई करने की हिम्मत न तो किसी अधिकारी में है और न ही राजनेताओं में। इन जमीनों के लीज रेट को लेकर भी खेल चला। अखबार को सरकार से सारी सुविधाएं चाहिए। जनसंपर्क से विज्ञापन पर दबाव, वाहनों के लिए दबाव यहां तक कि घूमने फिरने तक के लिए दबाव बनाये जाते हैं।
विदेश तक घूम आये...
छत्तीसगढ़ के मीडिया बिरादरी को खुश करने सरकार विदेश तक ले जा चुकी है बैकांक- पटाया जा चुके पत्रकारों के नाम पर खूब खर्च हुए। जनता की गाढ़ी कमाई पर अपव्यय को लेकर छापने वाले पत्रकार न संपादक को यह विदेश यात्रा कभी अपव्यय नहीं लगा। और न ही उन्हें सरकारी सुविधाएं लेने में कभी हिचक हुई।

और अंत में...
पत्रकार अब सरकारी खर्चे पर किताब लिखने लगे है। सरकार से पैसा एंठने में इस नये खेल में ईमानदारी का ढि़ंढोरा पिटने वाले कई शामिल है।